ये कुर्बानियां आधुनिक सभ्यता के गहरे दाग हैं
ये कुर्बानियां
आधुनिक सभ्यता के गहरे दाग हैं
जी हां वही आधुनिक सभ्यता जिसकी गहन मीमांसा महात्मा गांधी
ने हिंद स्वराज में 1909 में की थी। लेकिन न तब के विद्वानों को उसमें सार तथ्य
लगा न ही आज के समाजों में व्याप्त विसंगतियों, असंतोषों, संघर्षों की विवेचना करने
वाले हिंद स्वराज की स्थापनाओं के प्रकाश में इनको समझना उचित समझते हैं। कारण
गांधी ने हिंद स्वराज में ही बता दिया था। हिंद स्वाराज के छटे अध्याय में गांधी लिखते हैं कि आमतौर पर लोग अपने स्वयं
के प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करते। जो लोग आधुनिक सभ्यता के रंग में रंगे हैं वे इसके
विरुद्ध नहीं लिखेंगे।उनकी कोशिश रहेगी वे इसके समर्थन में तथ्य जुटाएं। ऐसा वे
अवचेतन मन से करते हैं और इसकी सत्यता पर विश्वास भी करते हैं। उनके लेख हमें सम्मोहित
करते हैं और हम उनकी ओर खिचे चले जाते हैं। आज जब पूरा विश्व पर्यावरण विघटन के
दंश झेल रहा है, तब भी हिंद स्वराज में रेल
(यातायत, ) आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था(डाक्टर), कानून व्यवस्था (वकील),उपभोक्ता
संस्कृति की जो आलोचना की गई है उसके सार व तत्व को महाविद्यालयों के विद्यार्थियों को समझने में
कठिनाई होती है । इसके विपरीत संपूर्ण विश्व के शोषित दमित अपने संघर्षों के
माध्यम से इस आधुनिक व्यवस्था से श्रष्टि के लिए
उपजे गंभीर खतरों का आगाज कर रहे हैं। तिब्बत में चल रहा जन संघर्ष विश्व
के शोषितों व दमितों के संघर्षों की एक कड़ी है।चूंकि वहां पर सत्ता का शोषण और
दमन अपने चरम पर है इसलिए समाज के विभिन्न् वर्गों के शांतिप्रिय तिब्बतियों ने अपनी कुरबानियों के माध्यम से
सारे श्रष्टि को रोदने को आतुर इस सभ्यता की विसंगतियों को समग्ररूप से मानवता के
सामने लाने का प्रयास किया है।
यह प्रयास कैसे किया गया है यह जानने से पहले यह जान लें कि
ये आत्मदाह करने वाले कौन हैं।तिब्बत के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान के अनुसार 27,2
2009 से अभी तक यानी 16,4,2014 तक 131 तिब्बती युवक, युवतियों, बुजुर्गों,ग्रहस्थ
पुरुष स्त्रियों, युवा भिक्षु व भिक्षुणियों, स्कूली छात्र छात्राओं, चरवाहों ने आत्मदाह कर
अपनी कुर्बानी दे दी। 60 साल से अधिक आयु के वृद्ध चरवाहा Tamdrin
Thar, ने 15 जून
2012, को पूर्वी तिब्बत में चीनी पीपुल्स सशस्त्र पुलिस के दफ्तर
के प्रांगण में आत्मदाह कर दिया। Tamdrin
Thar, के अलावा 3 दिसंबर2013, को, 30 वर्षीय Kunchok Tsetenने ,31 साल के Tenzin
Shirab, Yushu ने 27 मई 2013 को आत्मदाह किया। बताया जारहा है कि ये
चरवाहे चीनी सरकार की घुमंतु चरवाहों को
जबरदस्ती स्थाई बसाहटों में रहने को मजबूर करने तथा पारंपरिक संसाधनों को उनसे
छीनने की कवायद का विरोध कर रहे थे।उल्लेखनीय है कि सरकार की इस नीति से चरवाहे
विस्थापित हो रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति खराब होरही थी।
18वर्षीय Kunchok Tsering चरवाहे ने 26 नवंबर 2012 को जान दे
दी। 4 नवंबर 2012 को Dorje
Lungdup,( traditional Tibetan artist) ने
आत्मदाह कर लिया। 28 सितंबर
2013को 41वर्षीय किसान Shichung ने
भी आत्मदाह कर लिया।
2010 के भूकंप के बाद सरकार के पुनर्वास के नाम पर जबरन
भूमि अधिग्रहण नीति के विरोध में भी आत्मदाह हुए हैं।करीब 70 परिवार इस नीति का
विरोध कर रहे थे कि अचानक 40
वर्षीय Dekyi Choezom ने
स्वयं को आग के हवाले कर दिया। Passang Lhamoभी इस भूमि अधिग्रहण में विस्थापति हुई। तिब्बत सरकार से अपनी जमीन वापस पाने
के प्रयास में असफल हो जाने के बाद वह चीन की राजधानी बेइचिंग चीनी सरकार से अपील
करने गई।जब वहां से भी अपनी पुस्तेंनी जमीन वापस मिलने का कोई आश्वासन नहीं मिला
तो वहीं पर सितंबर 2012 को उसने आत्मदाह कर लिया। इसी प्रकार मार्च 2013 चार
बच्चों की मां Kalkyi और
16 अप्रेल 2013 को 20 साल की एक बच्चे की मां Jugtso ने आत्मदाह कर लिया। 16 साल की Wanchen
Kyi स्कूली छात्रा ने भी तिब्बत तथा तिब्बतियों के लिए 9
दिसंबर 2012 को मौत को गले लगा लिया। यही नहीं फौरेस्ट गार्ड Lhamo
Kyab(43 वर्ष) ने भी अपनी जान कुर्बान कर दी। आत्मदाह करने वाले
24 लोग18 साल से कम उम्र के थे। एक अनुमान के अनुसार दो तिहाई आत्मदाह करने वालो की उम्र 25 साल से कम
थी। कुछ ने लिखकर अपने विरोध की वजह बताई
तो कुछ ने चुपचाप कुर्बानी दे दी। इनमें से कुछ ने तिब्बत की आजादी, धार्मिक
स्वतंत्रता,संस्कृति, भाषा का संरक्षण, लोगों की भलाई के लिए, धर्मगुरु दलाई लामा
की वापसी के लिए कुर्बानी दी। कुछ ने मानव अधिकारों की मांग की तो कुछ ने राजनीतिक
कैदियों के मुद्दों को उठाया। यहां पर यह सवाल समचीन है कि क्या धर्म गुरु की वापसी
यह मांग महज आस्था की वजह से थी या इन लोगों का विश्वास था कि धर्मगुरु दलाई लामा
की वापसी से तिब्बत तथा तिब्बतियों की तबाही समाप्त हो जाएगी।
के अनुसार इनमें 111 पुरुष व 27 स्त्रियां हैं। 131 में से
107 की मौत विरोध करते हुए हुई। 131 में से 44 सिचुआन प्रांत से थे। 13 भिक्षु Ngaba के कीर्ति मठ से थे। 11 इसी मठ के पूर्व भिक्षु थे। दो भिक्षुणी थी। 130
आत्मदाह 16, 3, 2011 के बाद हुए। छः निर्वासित तिब्बतियों ने आत्मदाह किया। आत्मदाह
करने वालों में सबसे छोटा 15साल का था।
चीनी भाषा में तिब्बत को सीजांग कहते हैं। इसका अर्थ पश्चिमी बहुमूल्य खनिजों
का भंडार होता है।वास्तव में 1950 से ही चीनियों की नजर तिब्बत के प्राकृतिक
संसाधनों पर ही रही है। 1950
से ही तिब्बत की वन संपदा तथा कोयले का खदानों का दोहन प्रारंभ होगया था। इसके कुप्रभाव 1980 के दशक तक सामने आगए थे ।मसलन तिब्बत के जंगलों की अंधाधुंध कटान से हिमालय से निकलने वाली दस प्रमुख नदियों
के उदगम स्थानों में मिट्टी का कटाव इतना बढ़ गया कि चीन को यांगज नदी के
बाढ़ का भयंकर प्रकोप
झेलना पड़ा। इसलिए चीन के सरकार समाचार एजंसी सिन्हुआ ने बताया कि 24 अगस्त 1998 से सरकार ने कि पूर्वी खाम क्षेत्र में पड़नें
वाले यांग्त्ज़ी नदी
के ऊपरी भाग में पेड़ों की कटाई पूर्णरूप से रोक दी । वनों के कटान में यह रोक इस
क्षेत्र के भूक्षरण पर नियंत्रण रखने के लिए लगाई गई थी।
एक चीनी अखबार चायना
डेली के अनुसार 70 से अधिक सरकारी पेड़ काटने की कंपनियों इस इलाके में वन संपदा का दोहन कर रही थी। इन कंपनियों में
काम करने वाले मजदूरों को अब वनीकरण के काम में लगया जाना था। वनों की कटाई में
प्रतिबंध के साथ साथ 9 मिलियन हैक्टेयर चारागाहों को भी चरवाहों के लिए बंद कर
दिया गया। जिससे चरवाहों के सामने अस्तितव का संकट आगया। लेकिन
स्वायत तिब्बत क्षेत्र टीएआर(जिसको ही चीनी सरकार अब तिब्बत मानती है)वनों की कटाई
पर रोक नही लगी। हालांकि सरकार ने यहां के कई इलाकों में अनियंत्रित कटान पर चिंता
व्यक्त की है।
इससे पहले नवंबर 1996 में ही सरकारी समाचार एजंसी सिन्हुआ ने बता दिया था कि इस क्षेत्र का 35 प्रतिशत हिस्से को गंभीर
जल और
मिट्टी का नुकसान
भुगतना पड़ता था। हर वर्ष1.6 बिलियन टन मिट्टी बह जाती थी। चीनी
वैज्ञानिक तो 1986 से ही वनों की अनियंत्रित कटाई पर चिंता व्यक्त कर रहे थे। इस
साल बीजिंग स्थित प्राकृतिक संसाधनों के
समग्र सर्वेक्षण
आयोग ने
माना कि यहां पर वनों का दोहन वन
उत्पादकता से 2.3 गुना अधिक था।
90 के दशक के अंतिम चरणों में चीन ने तिब्बत की प्राकृतिक
संपदा का गहन भूगर्भीय सर्वेक्षण कराया। इस सर्वेक्षण में सात साल लग गए और 50
मिलियन डालर
व्यय किये गए। 2007 में सर्वेक्षण की रपट को सार्वजनिक किया गया। इसके बाद
पता चला कि तिब्बत में तांबा, जिंक ल्यड प्रत्येक
धातु का 40 मिलियन टन
का भंडार है तथा एक बिलियन टन से अधिक उत्तम गुणवत्ता का
लोहा है। इसके अलावा यहां यूरेनियम,
बोरक्स व पोटास भी पाया गया। यहां के लिथियम के भंडार विश्व के सबसे बड़े भंडारों में हैं। यहां की नमक की झीलें भी
दुनियां की सबसे बड़ी झीलों में शामिल की जाती हैं। पानी की भी तिब्बत में
प्रचुरता है।यहां के पहाड़ों के दस वाटरशेडों से भारी मात्रा
में बिजली का उत्पादन किया जारहा है। तिब्बत की प्राकृतिक
संपदा के दोहन को ध्यान में रख कर ही जून 1999 में राष्ट्रपति जियांग ज
मिन ने पश्चिमी विकास रणनीति की घोषणा की। जुलाय
2006 में ल्हाशा गोरमुड के बीच रेल लाइन प्रारंभ हो गई। इससे तिब्बत में सामान,
पूंजीपतियों तथा प्रवासी कर्मचारियों की पहुंच आसान
हो गई। अब चीनी कंपनियों के साथ साथ विदेशी कंपनियां भी तिब्बत में पूंजी लगाने
लगी।कई कनाडाई फर्मों ने तिब्बत में
तांबा और सोने की खदानों में पूंजी लगाई है।
Roger Howard के अनुसार कच्चे माल के दोहन के लिए किये
जारहे बुनियादी सुविधाओं के अंधाधुंध विकास की वजह से तिब्बत में कई प्रकार की
विसंगतियां और
असंतुलन आगए हैं । चूंकि इस विकास की गति थम नहीं रही है इसलिए भविष्य में स्थिति
के अधिक भयावह होने की आशंका से स्थानीय तिब्बती लोग आतंकित हैं। मसलन तिब्बत
को रेल से जोड़ने के पश्चात चीन से यहां बसने के लिए आने वाले प्रवासियों की
संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो रही है। इसका खमिजाना स्थानीय लोगों को
भरना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप लोगों में रोष है। जो गाहे बगाहे फूट पड़ता है। इस सबका पर्यावरण पर भी प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना है। बड़े पैमाने में खनन से बड़ी संख्या में किसान
तथा चरवाहे विस्थापित हुए है। खनन के
लिए जमीन खाली करवाने के लिए चरवाहों को चारागाहों से बेदखल कर दिया गया है और उनको स्थाई बस्तियों में बसाया
गया है। इस पूरी प्रक्रिया में उनकी कोई राय
नही ली गई है।
Roger Howard TIBET'S NATURAL RESOURCES: Tension Over Treasure The World Today, Vol.
66, No. 10 (October 2010), pp. 12-14)
तिब्बत (टीएआर) के बाहर किंघाई, सिचुआन
और गांसु
प्रांतों के
चरवाहों को भी स्थाई बस्तियों में बसाया
गया है। इससे चरवाहों के सामने अस्तित्व का संकट आगया है। इस संकट की गहनता को समझने
के लिए चरवाहों की जीवनशैली, पर्यावरण के साथ सहअस्तित्व की उनकी संस्कृति और
परंपरा को समझना आवश्यक है।
डैनियल जे
मिलर (जो चारागाह(rangeland) विज्ञानी
और कृषि
विकास विशेषज्ञ हैं तथा एशिया के विभिन्न देशों में , कृषि
विकास ,प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन,तथा जैव
विविधता संरक्षण का पिछले डेढ़ दो दशक का अनुभव
है) ने अपने
लेख द वर्ल्ड आफ तिब्बतन नोमेड्स मे लिखा है कि प्रकृति की गोद में रहने वाले अंय
लोगों की तरह चरवाहों ने भी
अपने, चारागाहों,वहां की वनस्पति, वन्य जीव जन्तुओं तथा वहां पर पाले जाने
वाले पशुओं के साथ एक मजबूत रिस्ता विकसित किया है। चरवाहों का प्रकृति के विभिन्न रुपों
बारिष , बर्फ के तूफान, सूखा से हमेशा ही वास्ता पड़ता रहा है इसलिेए वे प्रकृति की इन अतियों को भी बड़ी सहजता से लेते हैं। उनकी अपने पर्यावरण
की समझ अदभुत होती है। पशुओं पर अंकुश रखने की उनकी क्षमता भी अदम्य होती है। मिल्लर के अनुसार तिब्बती चरवाहों ने वहां की विषम परिस्थितियों में
जीवनयापन ही नहीं किया बल्कि एक बेजोड़ संस्कृति विकसित की।वे एक ऐसी अद्वितीय सभ्यता का हिस्सा बने जो 1,300 साल पहले एशिया की सबसे शक्तिशाली सभ्यता थी।
मिलर का मानना है कि चूंकि तिब्बत
के चारागाह 3000से 5000 मीटर की ऊंचाई में स्थित हैं इसलिए चारागाहों पर किसानों
ने कृषि के लिए कब्जा नही किया। और यहां पर pastoralism निर्बाध गति से फला फूला। दूसरा चरवाहों ने
पशुपालन की ऐसी विधियां विकसित की जो विषम स्थानीय परिस्थितियों में कामयाब हो
सकें।इस प्रक्रिया में उनकी अपनी जटिल पर्यावरण की जो समझ बनी वह अपने आप में बेजोड़ व बहुमूल्य है। यही जीवंत चरवाहे संस्कृति की नींव है। तिब्बत के चारागाह पश्चिम से
पूर्व की ओर 2500 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 1200 किलोमीटर में फैले हैं।
यह दुनियां के सबसे बड़े चारागाहों में एक हैं। नदियों
के उदगम के पर्यावरण का संरक्षण तथा प्रबंधन का वैश्विक महत्व है। तिब्बत के ये चारागाह दुनियां के सबसे अधिक ऊंचाई (4,000 मीटर से अधिक) में
स्थित हैं। कुछ चरवाहे 5,000 की ऊंचाई पर भी वास करते हैं। यहां की परिस्थियां
बहुत विषम हैं।गर्मियों में भी बर्फीले तूफान आते हैं। इन चारागाहों की संरचना अलग
अलग क्षेत्रों में अलग अलग है। उत्तर पश्चिम में ठंडे रेगिस्तान से लेकर, अर्द्ध
शुष्क मैदान तक, फिर झाड़ीदार वनस्पति
वाली जमीन बाद में पहाड़ों की ढलानों और नदी घाटियों में
फैले घनी अल्पाइन घास के मैदान
हैं। इनमें पाई जाने वाली वनस्पतियों और पशु
पक्षियों की प्रजातियों में भी क्षेत्रीय मौसम तथा पर्यावरण के अनुसार विभिन्नता लिए है।अपने अस्तित्व के बचाव लिए
इनमें आपस में गजब का तालमेल है। मिल्लर का कहना है कि छोटे स्तनपायी जैसे pikas, voles व marmots यहां की वनस्पति को प्रभावित
करते हैं तथा वनस्पति व जानवरों के बीच अद्वितीय
सामंजस्य बनाते हैं।
परभक्षी जैसे भालू, भेड़िये, बर्फ
तेंदुए, लोमड़ी
और ईगल्स
इनका शिकार करते थे। इसके अलावा लैंडस्केप की टोपोग्राफी(स्थलाकृति) पानी की उपलब्धता, हवा के रुख के
अनुसार ही वन्य जीव तथा चरवाहे अपनी बसावट तय करते हैं। पालतू पशु और जंगली जानवर दोनों का अस्तित्व वनस्पति की विभिनंता, इसकी मिश्रित प्रजातियों की
उपलब्धता पर निर्भर है। हर साल वर्षा की मात्रा तथा स्थानीय मौसम के अनुसार चारा
उत्पादन घटता बढ़ता है। चरवाहों, पालतू पशुओं और जंगली जानवरों का अस्तित्व घास की सघनता,व
चारागाहों के रखरखाव पर निर्भर है।घास के इन मैदानों में ही चरवाहों ने हजारों साल
पुरानी चारागाह अद्वितीय संस्कृति का विकास किया है।जिसके बारे में दुनियां को बहुत कम जानकारी है। मिली जुली प्रजातियों के पशु मसलन याक
घोड़े, भेड़ बकरी पालने से चारागाहों की वनस्पति का दुरुस्त उपयोग किया जासकता है।
पशु पालन के अलावा इन चरवाहों ने कातने तथा बुनने की कला भी विकसित की।
इन चरवाहों का अपने लैंडस्केप के बारे में ज्ञान अथाह है। अपने पर्यावरण,मौसम
के स्वभाव, स्थानीय वनस्पतियों की पौष्टिकता,जड़ी बूटियों तथा अपने पशुओं के बारे में पीढ़ियों के अनुभव से बनी उनकी समझ गहन
व सर्वव्यापी है। इन चरवाहों ने पिछले हजारों सालों में अपने रहन सहन खान पान को
अपने पर्यावरण के अनुकूल ढ़ाला है न कि पर्यावरण को अपनी आवश्यकता अनुसार बदला है।
जैसा कि कृषि के लिए किसान करते हैं।(आज की चीनी सरकार भी यही कर रही है ) बुद्ध
धर्म के अलावा तिब्बती चरवाहे अपने पुराने धर्म वोन को भी मानते हैं।प्रकृति पूजा जिसका
मुख्य अंग है। अतः भारत की तरह वहां भी पर्वतों नदियों झीलों वृक्षों आदि को पूजने
की परंपरा रही है। मिलर का
मानना है कि चारागाहों से चरवाहों को विस्थापित कर जबरन स्थाई
कालोनियों में बसाने का
मतलब है 1,300 साल पुरानी सभ्यता का विनाश।
दरअसल में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की तिब्बत के विकास की अवधारणा तिब्बती पर्यावरण
तथा वहां के लोगों की आकांक्षाओं से मेल नही खाती। पार्टी व सरकार तिब्बत को एक
उपनिवेशवादी नजरिये से देखते हैं।उनका यह दृष्टिकोण तिब्बत पर छापे गए अपने
दस्तावेजों से स्पष्ट हो जाता है। इन दस्तावोजो की शुरुआत ही तिब्बत के इतिहास,
धर्म, पारंपरिक व्यवस्थाओं पर कटु कटाक्ष करते हुए होती है, और आम तिब्बती को इससे
अलग करने की भरपुर कोशिश होती है लेकिन यह आम तिब्बती जिसके 1950 से पहले दमित व
शोषित होने का रोना पार्टी व सरकार करती रहती है तथा 1950 के बाद उसके खुशहाल होने
का दावा करती है अपनी संस्कृति, परंपरा, भाषा, धर्म व धर्मगुरुओं से अपने अंतर्मन
की गहराइयों से जुड़ा हुआ है।इसप्रकार विकास का दावा करने वाले चीनी दस्तावेजों की शुरुआत ही तिब्बतियों की भावनाओं पर करारी चोट
से होती है। मसलन यदि 2002 के तिब्बत आधुनीकीकरण की ओर दस्तावेज को लें तो इसमें पहले पांच पृष्टों
में 1949 के पूर्व के तिब्बत की कटु आलोचना की गई है। यहां तक लिखा गया है
पारंपरिक तिब्बती व्यवस्था इतनी सड़ व गल चुकी थी कि उसमें तथाकथित विकास की कोई
संभावना ही बची नहीं थी।यदि तिब्बत को आजाद नहीं किया गया होता तो वहां पर न कृषक दास(सर्फ)
बचते और न ही उनके शोषण पर ऐश करने वाले अमीर ही बचे रह सकते थे। इस प्रकार चीनी सरकार तिब्बत के इतिहास पर कटु टिप्पणी कर
अपने तिब्बत पर अधिपत्य को सही ठहराने का
प्रयास करती है।उसके बाद सरकारी और
अंय प्रांतों की जनता का तिब्बत के विकास पर सहयोग तथा उपलब्धियों से होती है।
उपरोक्त दस्तावेत बताता है कि चीनी सरकार ने सिचुआन तिब्बत राजमार्ग, युन्नान तिब्बत
राजमार्ग, Qinghai-तिब्बत राजमार्ग बनाई,तामसिंग हवाई
अड्डा बनाया, जल संरक्षण यंत्र, बड़े बड़े उद्योग लगाए, बैंक , व्यापारिक केंद्र, स्कूल
, डाकखाने तथा अस्पताल खोले। दस्तावेज बताता है कि 1984 के बाद केंद्रीय सरकार के अलावा चीन के अंय
प्रदेशों ने भी तिब्बत में 43 योजनाएं प्रोजक्स चला रहे हैं। चीन का दावा है कि इस
प्रकार तिब्बत को व्यवसाई ताकतों के लिए खोल देने से वहां पर चहुमुखी प्रगति हुई
है। वहां पर कृषि, पशुपालन, उद्योगों के साथ साथ सेवा (tertiary) व्यवसाय,, होटल व्यवसाय, तथा पर्यटन व्यवसाय, भी बढ़े हैं।
इसी प्रक्रिया को
तीव्रता से आगे बढ़ाने के लिए 1994 में तिब्बत में काम करने के लिए नई दिशा तथा मापदंड
तय कर दिये गए। अब तिब्बत में स्थिरता बनाए रखने को वहां पर अर्थव्यवस्था में तेज
रफ्तार लाने से जोर दिया गया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चीन के अंय विकसित
क्षेत्रों को भी तिब्बत में पूंजी निवेश की अनुमति दे दी गई। तिब्बत का चहुमुखी
आधुनिकरण ही चीन का उद्देश्य बताया गया। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राज्य को
सीधे ही निर्माण योजनाओं में पूंजी निवेश करना था। केंद्र सरकार को वित्तीय अनुदान
देना था तथा दूसरे राज्यों अपने हिस्से की
सहायता राशि देना था। यह दस्तावेज यह भी बताता है कि 1994 से केंद्र सरकार
ने 62 योजनाओं में 4.86 विलियन युआन लगाया है। 15 राज्यों, म्युनिसिपैलिटियों व
अंय संस्थाओं ने 716 परियोजनाओं के निर्माण के लिये 3.16 बिलियन युआन राशि का
योगदान दिया। इस काम में मदद करने के लिए पूरे देश से 1900 काडर तिब्बत भेजे गए।
2001 में फिर सरकार ने इस आधुनिकरण प्रक्रिया को नई शताब्दी में और मजबूत बनाने के
लिए दिशा निर्देश बनाए। चीनी सरकार दावा करती है कि पिछले 50 सालों में पारंपरिक
व्यवस्था के स्थान पर तिब्बत बाजार व्यवस्था की ओर तेजी से अग्रसर हुआ है। आधुनिक उद्योग अर्थव्यवस्था के प्रमुख स्तंभ बन गए हैं।
,उर्जा उद्योग में बाधों, थरमल पावर, सोलर तथा हवा से उर्जा उत्पादन की परियोजनाएं
चल रही हैं। परिवहन उद्योग ने खूब प्रगति
की है। पूरे तिब्बत में सड़कों का जाल सा बिछ गया एक 1080 किलो मीटर पेट्रोल पाइप
लाइन बनाई गई है। यह पूरी दुनियां में
सबसे ऊंचे एल्टिट्यूड पर बनाई गई पाइपलाइन है। अब तो किंगहाइ- तिब्बत रेल लाइन भी
बन गई है। तिब्बत के इस तथाकथित विकास से वहां पर सेवा उद्योग (Tertiary
industry)मसलन, पर्यटन, व्यापार, डाक सेवा, होटल, मनोरंजन, सूचना
प्रद्योगिकी, ने बहुत प्रगति की है। शहरीकरण में भी दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति
हुई है।
दुर्भाग्य से तिब्बती
इस आधुनिकीकरण तथा औद्योगीकरण की बाढ़ को ही अभिषाप मान रहे हैं। विकास के नाम पर
आधुनिक सभ्यता की इस घुसपैठ ने तिब्बत तथा तिब्बतियों के लिए अस्तित्व का संकट
पैदा कर दिया है।सबसे बड़ा मसला रोजी रोटी की समस्या है। पर प्रांती मानव संसाधन,
चीनी व विदेशी पूंजी के आने से तिब्बती अपने पारंपरिक रोजगार खो रहे हैं और नए मिल
नही रहे हैं। खनन, यातायात, बांधों, पर्यटन उद्योग आदि कि अबाध प्रगति से पर्यावरण
का संकट मुहबाए खड़ा है जिसका असर पूरे उपमहाद्वीप पर पड़ रहा है।
संक्षेप में तिब्बत ही
नही आज पूरा ब्रह्मांड ही आधुनिक सभ्यता के कर्णधारों की गिरफ्त में आगया है और
इनके अनियंत्रित लालच का शिकार होरहा है। इससे पूरी श्रष्टि ही त्राहि त्राहि कर
रही है। पेड़, पौधों, वनस्पतियों, पशु, पक्षियों की अनगिनत प्रजातियां या तो
विलुप्त हो गई हैं या विलुप्त होने के कगार में हैं। मौसम का मिजाज बिगड़ा है।
पहाड़ों नदियों, रेगिस्तानों आदि सभी का अस्तित्व खतरे में है।आमजन जिसका अस्तित्व
श्रष्टि के अस्तित्व से जुड़ा है अपने अपने स्तर पर विश्व स्तर पर चल रही इस
विनाशलीला का विरोध कर रहा है। परंतु ये जनसंघर्ष आधुनिक सभ्यता इन कर्णधारों को
नियंत्रित करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। जनता द्वारा चुनी गई सरकारें विकास
तथा ग्रोथ के नाम पर विनाशलीला के इन नायकों के पीछे खड़ी रहती हैं और जन आंदोलनों
को कुचलने में कोई कोताई नहीं बरत रही हैं। पिछले साल उत्तराखंड की मानवकृत
त्रासदी के समय भी जिस प्रकार से देश प्रदेश की सरकारें तथाकथित विकास के एजंडे पर
अड़ी थी उससे साफ था कि या तो वे सर्वशक्तिमान आधुनिक सभ्यता के एजेंटों के सामने
लाचार थी या उनके हित आपस में मिलते थे। ऐसी स्थिति में जब राजनीतिक दल और उनकी
सरकारें जनता की आंकांशाओँ के बजाय तथाकथिक विकास को तरजीह दे रही हों उनसे तिब्बत
के इस शांतिपूर्ण आंदोलन के समर्थन की उमीद नहीं की जासकती। लेकिन अपने शोषण व दमन
के विरुद्ध आवाज उठा रहे लोग तो एकजुट होकर इस विनाशलीला के प्रतिकार का कोई
प्रभावशाली रास्ता निकाल सकते हैं।
यह लेख 5 मई 2014 से
पहले लिखा गया। इस दौरान तिब्बत के लिए अंतर्राष्ट्रीय कैम्पेन ने 2009 से 2014 तक
हुए आत्मदाहों का जो नक्शा छापा वह नीचे दिया जारहा है।
Map: Tibetan self-immolations
from 2009-2014
Click map for larger image
सूत्र-- http://www.savetibet.org/resources/fact-sheets/self-immolations-by-tibetans/map-tibetan-self-immolations-from-2009-2013/
सूत्र-- http://www.savetibet.org/resources/fact-sheets/self-immolations-by-tibetans/map-tibetan-self-immolations-from-2009-2013/
लेबल: आजादी, आत्मदाह, जन संघर्ष, दलाई लामा, धार्मिक स्वतंत्रता, संस्कृति, हिंद स्वराज