बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

ये कुर्बानियां आधुनिक सभ्यता के गहरे दाग हैं




ये  कुर्बानियां आधुनिक सभ्यता के गहरे दाग हैं
जी हां वही आधुनिक सभ्यता जिसकी गहन मीमांसा महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में 1909 में की थी। लेकिन न तब के विद्वानों को उसमें सार तथ्य लगा न ही आज के समाजों में व्याप्त विसंगतियों, असंतोषों, संघर्षों की विवेचना करने वाले हिंद स्वराज की स्थापनाओं के प्रकाश में इनको समझना उचित समझते हैं। कारण गांधी ने हिंद स्वराज में ही बता दिया था। हिंद स्वाराज के छटे अध्याय में गांधी लिखते हैं कि आमतौर पर लोग अपने स्वयं के प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करते। जो लोग आधुनिक सभ्यता के रंग में रंगे हैं वे इसके विरुद्ध नहीं लिखेंगे।उनकी कोशिश रहेगी वे इसके समर्थन में तथ्य जुटाएं। ऐसा वे अवचेतन मन से करते हैं और इसकी सत्यता पर विश्वास भी करते हैं। उनके लेख हमें सम्मोहित करते हैं और हम उनकी ओर खिचे चले जाते हैं। आज जब पूरा विश्व पर्यावरण विघटन के दंश झेल रहा है, तब भी हिंद स्वराज में  रेल (यातायत, ) आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था(डाक्टर), कानून व्यवस्था (वकील),उपभोक्ता संस्कृति की जो आलोचना की गई है उसके सार व तत्व को  महाविद्यालयों के विद्यार्थियों को समझने में कठिनाई होती है । इसके विपरीत संपूर्ण विश्व के शोषित दमित अपने संघर्षों के माध्यम से इस आधुनिक व्यवस्था से श्रष्टि के लिए   उपजे गंभीर खतरों का आगाज कर रहे हैं। तिब्बत में चल रहा जन संघर्ष विश्व के शोषितों व दमितों के संघर्षों की एक कड़ी है।चूंकि वहां पर सत्ता का शोषण और दमन अपने चरम पर है इसलिए समाज के विभिन्न् वर्गों के शांतिप्रिय  तिब्बतियों ने अपनी कुरबानियों के माध्यम से सारे श्रष्टि को रोदने को आतुर इस सभ्यता की विसंगतियों को समग्ररूप से मानवता के सामने लाने का प्रयास किया है। 
यह प्रयास कैसे किया गया है यह जानने से पहले यह जान लें कि ये आत्मदाह करने वाले कौन हैं।तिब्बत के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान के अनुसार 27,2 2009 से अभी तक यानी 16,4,2014 तक 131 तिब्बती युवक, युवतियों, बुजुर्गों,ग्रहस्थ पुरुष स्त्रियों, युवा भिक्षु व भिक्षुणियों, स्कूली छात्र छात्राओं, चरवाहों ने आत्मदाह कर अपनी कुर्बानी दे दी। 60 साल से अधिक आयु के वृद्ध चरवाहा Tamdrin Thar, ने 15 जून 2012, को पूर्वी तिब्बत में चीनी पीपुल्स सशस्त्र पुलिस के दफ्तर के प्रांगण में आत्मदाह कर दिया। Tamdrin Thar, के अलावा 3 दिसंबर2013, को, 30 वर्षीय Kunchok Tsetenने ,31 साल के Tenzin Shirab, Yushu ने 27 मई 2013 को आत्मदाह किया। बताया जारहा है कि ये चरवाहे चीनी सरकार की घुमंतु चरवाहों  को जबरदस्ती स्थाई बसाहटों में रहने को मजबूर करने तथा पारंपरिक संसाधनों को उनसे छीनने की कवायद का विरोध कर रहे थे।उल्लेखनीय है कि सरकार की इस नीति से चरवाहे विस्थापित हो रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति खराब होरही थी। 18वर्षीय Kunchok Tsering  चरवाहे ने 26 नवंबर 2012 को जान दे दी। 4 नवंबर 2012 को  Dorje Lungdup,( traditional Tibetan artist) ने आत्मदाह कर लिया। 28 सितंबर 2013को 41वर्षीय किसान Shichung ने भी आत्मदाह कर लिया।   
2010 के भूकंप के बाद सरकार के पुनर्वास के नाम पर जबरन भूमि अधिग्रहण नीति के विरोध में भी आत्मदाह हुए हैं।करीब 70 परिवार इस नीति का विरोध कर रहे थे कि अचानक 40 वर्षीय Dekyi Choezom ने स्वयं को आग के हवाले कर दिया। Passang Lhamoभी इस भूमि अधिग्रहण में विस्थापति हुई। तिब्बत सरकार से अपनी जमीन वापस पाने के प्रयास में असफल हो जाने के बाद वह चीन की राजधानी बेइचिंग चीनी सरकार से अपील करने गई।जब वहां से भी अपनी पुस्तेंनी जमीन वापस मिलने का कोई आश्वासन नहीं मिला तो वहीं पर सितंबर 2012 को उसने आत्मदाह कर लिया। इसी प्रकार मार्च 2013 चार बच्चों की मां Kalkyi और 16 अप्रेल 2013 को 20 साल की एक बच्चे की मां Jugtso ने आत्मदाह कर लिया। 16 साल की Wanchen Kyi स्कूली छात्रा ने भी तिब्बत तथा तिब्बतियों के लिए 9 दिसंबर 2012 को मौत को गले लगा लिया। यही नहीं फौरेस्ट गार्ड Lhamo Kyab(43 वर्ष) ने भी अपनी जान कुर्बान कर दी। आत्मदाह करने वाले 24 लोग18 साल से कम उम्र के थे। एक अनुमान के अनुसार दो तिहाई  आत्मदाह करने वालो की उम्र 25 साल से कम थी।  कुछ ने लिखकर अपने विरोध की वजह बताई तो कुछ ने चुपचाप कुर्बानी दे दी। इनमें से कुछ ने तिब्बत की आजादी, धार्मिक स्वतंत्रता,संस्कृति, भाषा का संरक्षण, लोगों की भलाई के लिए, धर्मगुरु दलाई लामा की वापसी के लिए कुर्बानी दी। कुछ ने मानव अधिकारों की मांग की तो कुछ ने राजनीतिक कैदियों के मुद्दों को उठाया। यहां पर यह सवाल समचीन है कि क्या धर्म गुरु की वापसी यह मांग महज आस्था की वजह से थी या इन लोगों का विश्वास था कि धर्मगुरु दलाई लामा की वापसी से तिब्बत तथा तिब्बतियों की तबाही समाप्त हो जाएगी।
के अनुसार इनमें 111 पुरुष व 27 स्त्रियां हैं। 131 में से 107 की मौत विरोध करते हुए हुई। 131 में से 44 सिचुआन प्रांत से थे। 13 भिक्षु Ngaba के कीर्ति मठ से थे। 11 इसी मठ के पूर्व भिक्षु थे। दो भिक्षुणी थी। 130 आत्मदाह 16, 3, 2011 के बाद हुए। छः निर्वासित तिब्बतियों ने आत्मदाह किया। आत्मदाह करने वालों में सबसे छोटा 15साल का था। 
चीनी भाषा में तिब्बत को सीजांग कहते हैं। इसका अर्थ पश्चिमी बहुमूल्य खनिजों का भंडार होता है।वास्तव में 1950 से ही चीनियों की नजर तिब्बत के प्राकृतिक संसाधनों पर ही रही है। 1950 से ही तिब्बत की वन संपदा तथा कोयले का खदानों का दोहन प्रारंभ होगया था। इसके कुप्रभाव 1980 के दशक तक सामने आगए थे ।मसलन तिब्बत के जंगलों की अंधाधुंध कटान से हिमालय से निकलने वाली दस प्रमुख नदियों के उदगम स्थानों में मिट्टी का कटाव इतना बढ़ गया कि चीन को यांगज नदी के बाढ़ का भयंकर प्रकोप झेलना पड़ा। इसलिए चीन के सरकार समाचार एजंसी सिन्हुआ ने बताया कि 24 अगस्त 1998 से सरकार ने कि पूर्वी खाम क्षेत्र में पड़नें वाले यांग्त्ज़ी नदी के ऊपरी भाग में पेड़ों की कटाई पूर्णरूप से रोक दी । वनों के कटान में यह रोक इस क्षेत्र के भूक्षरण पर नियंत्रण रखने के लिए लगाई गई थी।
एक चीनी अखबार चायना डेली के अनुसार 70 से अधिक सरकारी पेड़ काटने की कंपनियों इस इलाके में वन संपदा का दोहन कर रही थी। इन कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों को अब वनीकरण के काम में लगया जाना था। वनों की कटाई में प्रतिबंध के साथ साथ 9 मिलियन हैक्टेयर चारागाहों को भी चरवाहों के लिए बंद कर दिया गया। जिससे चरवाहों के सामने अस्तितव का संकट आगया। लेकिन स्वायत तिब्बत क्षेत्र टीएआर(जिसको ही चीनी सरकार अब तिब्बत मानती है)वनों की कटाई पर रोक नही लगी। हालांकि सरकार ने यहां के कई इलाकों में अनियंत्रित कटान पर चिंता व्यक्त की है।
इससे पहले नवंबर 1996 में ही सरकारी समाचार एजंसी सिन्हुआ ने बता दिया था कि इस क्षेत्र का 35 प्रतिशत हिस्से को गंभीर जल और मिट्टी का नुकसान भुगतना पड़ता था। हर वर्ष1.6 बिलियन टन मिट्टी बह जाती थी। चीनी वैज्ञानिक तो 1986 से ही वनों की अनियंत्रित कटाई पर चिंता व्यक्त कर रहे थे। इस साल बीजिंग स्थित प्राकृतिक संसाधनों के समग्र सर्वेक्षण आयोग ने माना कि यहां पर वनों का दोहन वन उत्पादकता से 2.3 गुना अधिक था।
90 के दशक के अंतिम चरणों में चीन ने तिब्बत की प्राकृतिक संपदा का गहन भूगर्भीय सर्वेक्षण कराया। इस सर्वेक्षण में सात साल लग गए और 50 मिलियन डाल व्यय किये गए। 2007 में सर्वेक्षण की रपट को सार्वजनिक किया गया।  इसके बाद पता चला कि तिब्बत में तांबा, जिंक ल्यड प्रत्येक धातु  का 40 मिलियन टन का भंडार है तथा एक बिलियन टन से अधिक उत्तम गुणवत्ता क लोहा है। इसके  अलावा यहां यूरेनियम, बोरक्स व पोटास भी पाया गया। यहां के लिथियम के भंडार विश्व के सबसे  बड़े भंडारों में हैं। यहां की नमक की झीलें भी दुनियां की सबसे बड़ी झीलों मे शामिल की जाती हैं। पानी की भी तिब्बत में प्रचुरता है।यहां के पहाड़ों के दस वाटरशेडों से भारी मात्रा में बिजली का उत्पादन किया जारहा है। तिब्बत की प्राकृतिक संपदा के दोहन को ध्यान में रख कर ही जून 1999 में राष्ट्रपति जियांग ज मिन ने पश्चिमी विकास रणनीति की घोषणा की। जुलाय 2006 में ल्हाशा गोरमुड के बीच रेल लाइन प्रारंभ हो गई। इससे तिब्बत में सामान, पूंजीपतियों तथा प्रवासी कर्मचारियों की पहुंच आसान हो गई। अब चीनी कंपनियों के साथ साथ विदेशी कंपनियां भी तिब्बत में पूंजी लगाने लगी।कई कनाडाई फर्मों ने तिब्बत में तांबा और सोने की खदानों में पूंजी लगाई है।
Roger Howard के अनुसार कच्चे माल  के दोहन के लिए किये जारहे बुनियादी सुविधाओं के अंधाधुंध विकास की वजह से तिब्बत में कई प्रकार की विसंगतिया और असंतुलन आगए हैं । चूंकि इस विकास की गति थम नहीं रही है इसलिए भविष्य में स्थिति के अधिक भयावह होने की आशंका से स्थानीय तिब्बत लोग आतंकित हैं। मसलन तिब्बत को रेल से जोड़ने के पश्चात चीन से यहां बसने के लिए आने वाले प्रवासियों की संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो रही है। इसका खमिजाना स्थानीय लोगों को भरना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप लोगों में रोष है। जो गाहे बगाहे फूट पड़ता है इस सबका पर्यावरण पर भी प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना  है।  बड़े पैमाने में खनन से बड़ी संख्या में किसान तथा चरवाहे विस्थापित हुए है। खनन के लिए जमीन खाली करवाने के लिए चरवाहों को चारागाहों से बदखल कर दिया गया है और उनो स्थाई बस्तियों में बसाया गया है। इस पूरी प्रक्रिया में उनकी कोई राय नही ली गई है।
Roger Howard TIBET'S NATURAL RESOURCES: Tension Over Treasure The World Today, Vol. 66, No. 10 (October 2010), pp. 12-14)
 
तिब्बत (टीएआर) के बाहर किंघाई, सिचुआन और गांसु प्रांतों के चरवाहों को भी स्थाई बस्तियों  में बसाया गया है। इससे चरवाहों के सामने अस्तित्व का संकट आगया है। इस संकट की गहनता को समझने के लिए चरवाहों की जीवनशैली, पर्यावरण के साथ सहअस्तित्व की उनकी संस्कृति और परंपरा को समझना आवश्यक है।
डैनियल जे मिलर (जो चारागाह(rangeland) विज्ञानी और कृषि विकास विशेषज्ञ हैं तथा एशिया के विभिन्न देशों में , कृषि विकास ,प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन,तथा जैव विविधता संरक्षण का पिछले डेढ़ दो दशक का अनुभव है) ने अपने लेख द वर्ल्ड आफ तिब्बतन नोमेड्स मे लिखा है कि प्रकृति की गोद में रहने वाले अंय लोगों की तरह चरवाहों ने भी अपने, चारागाहों,वहां की वनस्पति, वन्य जीव जन्तुओं तथा वहां पर पाले जाने वाले पशुओं के साथ एक मजबूत रिस्ता विकसित किया है। चरवाहों का प्रकृति के विभिन्न रुपों बारिष , बर्फ के तूफान, सूखा से हमेशा ही वास्ता पड़ता रहा है इसलिेए वे प्रकृति की इन अतियों को भी बड़ी सहजता से लेते हैं। उनकी अपने पर्यावरण की समझ अदभुत होती है। पशुओं पर अंकुश रखने की उनकी क्षमता भी अदम्य होती है। मिल्लर के अनुसार तिब्बती चरवाहों ने वहां की विषम परिस्थितियों में जीवनयापन ही नहीं किया बल्कि एक बेजोड़ संस्कृति विकसित की।वे एक ऐसी अद्वितीय सभ्यता का हिस्सा बने जो 1,300 साल पहले एशिया क सबसे शक्तिशाली सभ्यता थी।
मिर का मानना है कि चूंकि तिब्बत के चारागाह 3000से 5000 मीटर की ऊंचाई में स्थित हैं इसलिए चारागाहों पर किसानों ने कृषि के लिए कब्जा नही किया। और यहा पर pastoralism  निर्बाध गति से फला फूला। दूसरा चरवाहों ने पशुपालन की ऐसी विधियां विकसित की जो विषम स्थानीय परिस्थितियों में कामयाब हो सकें।इस प्रक्रिया में उनकी अपनी जटिल पर्यावरण की जो समझ बनी वह अपने आप में बेजोड़ व बहुमूल्य है। यही जीवंत चरवाहे संस्कृति की नींव है। तिब्बत के चारागाह पश्चिम से पूर्व की ओर 2500 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 1200 किलोमीटर में फैले हैं। यह दुनियां के सबसे बड़े चारागाहों में एक हैनदियों के उदगम के पर्यावरण का संरक्षण तथा प्रबंधन का वैश्विक महत्व है। तिब्बत के ये चारागाह दुनियां के सबसे अधिक ऊंचाई (4,000 मीटर से अधिक) में स्थित हैं। कुछ चरवाहे 5,000 की ऊंचाई पर भी वास करते हैं। यहां की परिस्थियां बहुत विषम हैं।गर्मियों में भी बर्फीले तूफान आते हैं। इन चारागाहों की संरचना अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग है। उत्तर पश्चिम में ठंडे रेगिस्तान से लेकर, अर्द्ध शुष्क मैदान तक, फिर झाड़ीदार वनस्पति वाली जमीन बाद में पहाड़ों की ढलानों और नदी घाटियों में फैले घनी अल्पाइन घास के मैदान हैं। इनमें पाई जाने वाली वनस्पतियों और पशु पक्षियों की प्रजातियों में भी क्षेत्रीय मौसम तथा पर्यावरण के अनुसार विभिन्नता लिए है।अपने अस्तित्व के बचाव लिए इनमें आपस में गजब का तालमेल है। मिल्लर का कहना है कि छोटे स्तनपायी जैसे pikas, voles marmots यहां की वनस्पति को प्रभावित करते हैं तथा वनस्पति व जानवरों के बीच अद्वितीय सामंजस्य बनाते हैं। परभक्षी जैसे भालू, भेड़िये, बर्फ तेंदुए, लोमड़ी और ईगल्स इनका शिकार करते थे। इसके अलावा लैंडस्केप  की टोपोग्राफी(स्थलाकृति) पानी की उपलब्धता, हवा के रुख के अनुसार ही वन्य जीव तथा चरवाहे अपनी सावट तय करते हैं। पालतू पशु और जंगली जानवर दोनों का अस्तित्व वनस्पति की विभिनंता, इसकी मिश्रित प्रजातियों की उपलब्धता पर निर्भर है। हर साल वर्षा की मात्रा तथा स्थानीय मौसम के अनुसार चारा उत्पादन घटता बढ़ता है। चरवाहों, पालतू पशुओं और जंगली जानवरों का अस्तित्व घास की सघनता,व चारागाहों के रखरखाव पर निर्भर है।घास के इन मैदानों में ही चरवाहों ने हजारों साल पुरानी चारागाह अद्वितीय सस्कृति का विकास किया है।जिसके बारे में दुनियां को बहुत कम जानकारी है। मिली जुली प्रजातियों के पशु मसलन याक घोड़े, भेड़ बकरी पालने से चारागाहों की वनस्पति का दुरुस्त उपयोग किया जासकता है। पशु पालन के अलावा इन चरवाहों ने कातन तथा बुनने की कला भी विकसित की।
इन चरवाहों का अपने लैंडस्केप के बारे में ज्ञान अथाह है। अपने पर्यावरण,मौसम के स्वभाव, स्थानीय वनस्पतियों की पष्टिकता,जड़ी बूटियों तथा अपने पशुओं के बारे में पीढ़ियों के अनुभव से बनी उनकी समझ गहन व सर्वव्यापी है। इन चरवाहों ने पिछले हजारों सालों में अपने रहन सहन खान पान को अपने पर्यावरण के अनुकूल ढ़ाला है न कि पर्यावरण को अपनी आवश्यकता अनुसार बदला है। जैसा कि कृषि के लिए किसान करते हैं।(आज की चीनी सरकार भी यही कर रही है ) बुद्ध धर्म के अलावा तिब्बती चरवाहे अपने पुराने धर्म वोन को भी मानते हैं।प्रकृति पूजा जिसका मुख्य अंग है। अतः भारत की तरह वहां भी पर्वतों नदियों झीलों वृक्षों आदि को पूजने की परंपरा रही है। मिलर का मानना है कि चारागाहों से चरवाहों को विस्थापित कर जबरन स्थाई कालोनियों में साने का मतलब है 1,300 साल पुरानी सभ्यता का विनाश।
     दरअसल में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की तिब्बत के विकास की अवधारणा तिब्बती पर्यावरण तथा वहां के लोगों की आकांक्षाओं से मेल नही खाती। पार्टी व सरकार तिब्बत को एक उपनिवेशवादी नजरिये से देखते हैं।उनका यह दृष्टिकोण तिब्बत पर छापे गए अपने दस्तावेजों से स्पष्ट हो जाता है। इन दस्तावोजो की शुरुआत ही तिब्बत के इतिहास, धर्म, पारंपरिक व्यवस्थाओं पर कटु कटाक्ष करते हुए होती है, और आम तिब्बती को इससे अलग करने की भरपुर कोशिश होती है लेकिन यह आम तिब्बती जिसके 1950 से पहले दमित व शोषित होने का रोना पार्टी व सरकार करती रहती है तथा 1950 के बाद उसके खुशहाल होने का दावा करती है अपनी संस्कृति, परंपरा, भाषा, धर्म व धर्मगुरुओं से अपने अंतर्मन की गहराइयों से जुड़ा हुआ है।इसप्रकार विकास का दावा करने वाले  चीनी दस्तावेजों की  शुरुआत ही तिब्बतियों की भावनाओं पर करारी चोट से होती है। मसलन यदि 2002 के तिब्बत आधुनीकीकरण की ओर  दस्तावेज को लें तो इसमें पहले पांच पृष्टों में 1949 के पूर्व के तिब्बत की कटु आलोचना की गई है। यहां तक लिखा गया है पारंपरिक तिब्बती व्यवस्था इतनी सड़ व गल चुकी थी कि उसमें तथाकथित विकास की कोई संभावना ही बची नहीं थी।यदि तिब्बत को आजाद नहीं किया गया होता तो वहां पर न कृषक दास(सर्फ) बचते और न ही उनके शोषण पर ऐश करने वाले अमीर ही बचे रह सकते थे। इस प्रकार  चीनी सरकार तिब्बत के इतिहास पर कटु टिप्पणी कर अपने तिब्बत पर अधिपत्य को सही ठहराने का  प्रयास करती है।उसके बाद सरकारी  और अंय प्रांतों की जनता का तिब्बत के विकास पर सहयोग तथा उपलब्धियों से होती है। उपरोक्त दस्तावेत बताता है कि चीनी सरकार ने सिचुआन तिब्बत राजमार्ग, युन्नान तिब्बत राजमार्ग, Qinghai-तिब्बत राजमार्ग बनाई,तामसिंग हवाई अड्डा बनाया, जल संरक्षण यंत्र, बड़े बड़े उद्योग लगाए, बैंक , व्यापारिक केंद्र, स्कूल , डाकखाने तथा अस्पताल खोले। दस्तावेज बताता है कि 1984 के  बाद केंद्रीय सरकार के अलावा चीन के अंय प्रदेशों ने भी तिब्बत में 43 योजनाएं प्रोजक्स चला रहे हैं। चीन का दावा है कि इस प्रकार तिब्बत को व्यवसाई ताकतों के लिए खोल देने से वहां पर चहुमुखी प्रगति हुई है। वहां पर कृषि, पशुपालन, उद्योगों के साथ साथ सेवा (tertiary) व्यवसाय,, होटल व्यवसाय, तथा पर्यटन व्यवसाय, भी बढ़े हैं।
इसी प्रक्रिया को तीव्रता से आगे बढ़ाने के लिए 1994 में तिब्बत में काम करने के लिए नई दिशा तथा मापदंड तय कर दिये गए। अब तिब्बत में स्थिरता बनाए रखने को वहां पर अर्थव्यवस्था में तेज रफ्तार लाने से जोर दिया गया। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चीन के अंय विकसित क्षेत्रों को भी तिब्बत में पूंजी निवेश की अनुमति दे दी गई। तिब्बत का चहुमुखी आधुनिकरण ही चीन का उद्देश्य बताया गया। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राज्य को सीधे ही निर्माण योजनाओं में पूंजी निवेश करना था। केंद्र सरकार को वित्तीय अनुदान देना था तथा दूसरे राज्यों अपने हिस्से की  सहायता राशि देना था। यह दस्तावेज यह भी बताता है कि 1994 से केंद्र सरकार ने 62 योजनाओं में 4.86 विलियन युआन लगाया है। 15 राज्यों, म्युनिसिपैलिटियों व अंय संस्थाओं ने 716 परियोजनाओं के निर्माण के लिये 3.16 बिलियन युआन राशि का योगदान दिया। इस काम में मदद करने के लिए पूरे देश से 1900 काडर तिब्बत भेजे गए। 2001 में फिर सरकार ने इस आधुनिकरण प्रक्रिया को नई शताब्दी में और मजबूत बनाने के लिए दिशा निर्देश बनाए। चीनी सरकार दावा करती है कि पिछले 50 सालों में पारंपरिक व्यवस्था के स्थान पर तिब्बत बाजार व्यवस्था की ओर तेजी से अग्रसर हुआ है। आधुनिक  उद्योग अर्थव्यवस्था के प्रमुख स्तंभ बन गए हैं। ,उर्जा उद्योग में बाधों, थरमल पावर, सोलर तथा हवा से उर्जा उत्पादन की परियोजनाएं चल रही हैं।  परिवहन उद्योग ने खूब प्रगति की है। पूरे तिब्बत में सड़कों का जाल सा बिछ गया एक 1080 किलो मीटर पेट्रोल पाइप लाइन बनाई गई है। यह पूरी दुनियां  में सबसे ऊंचे एल्टिट्यूड पर बनाई गई पाइपलाइन है। अब तो किंगहाइ- तिब्बत रेल लाइन भी बन गई है। तिब्बत के इस तथाकथित विकास से वहां पर सेवा उद्योग (Tertiary industry)मसलन, पर्यटन, व्यापार, डाक सेवा, होटल, मनोरंजन, सूचना प्रद्योगिकी, ने बहुत प्रगति की है। शहरीकरण में भी दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति हुई है।
दुर्भाग्य से तिब्बती इस आधुनिकीकरण तथा औद्योगीकरण की बाढ़ को ही अभिषाप मान रहे हैं। विकास के नाम पर आधुनिक सभ्यता की इस घुसपैठ ने तिब्बत तथा तिब्बतियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है।सबसे बड़ा मसला रोजी रोटी की समस्या है। पर प्रांती मानव संसाधन, चीनी व विदेशी पूंजी के आने से तिब्बती अपने पारंपरिक रोजगार खो रहे हैं और नए मिल नही रहे हैं। खनन, यातायात, बांधों, पर्यटन उद्योग आदि कि अबाध प्रगति से पर्यावरण का संकट मुहबाए खड़ा है जिसका असर पूरे उपमहाद्वीप पर पड़ रहा है।
संक्षेप में तिब्बत ही नही आज पूरा ब्रह्मांड ही आधुनिक सभ्यता के कर्णधारों की गिरफ्त में आगया है और इनके अनियंत्रित लालच का शिकार होरहा है। इससे पूरी श्रष्टि ही त्राहि त्राहि कर रही है। पेड़, पौधों, वनस्पतियों, पशु, पक्षियों की अनगिनत प्रजातियां या तो विलुप्त हो गई हैं या विलुप्त होने के कगार में हैं। मौसम का मिजाज बिगड़ा है। पहाड़ों नदियों, रेगिस्तानों आदि सभी का अस्तित्व खतरे में है।आमजन जिसका अस्तित्व श्रष्टि के अस्तित्व से जुड़ा है अपने अपने स्तर पर विश्व स्तर पर चल रही इस विनाशलीला का विरोध कर रहा है। परंतु ये जनसंघर्ष आधुनिक सभ्यता इन कर्णधारों को नियंत्रित करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। जनता द्वारा चुनी गई सरकारें विकास तथा ग्रोथ के नाम पर विनाशलीला के इन नायकों के पीछे खड़ी रहती हैं और जन आंदोलनों को कुचलने में कोई कोताई नहीं बरत रही हैं। पिछले साल उत्तराखंड की मानवकृत त्रासदी के समय भी जिस प्रकार से देश प्रदेश की सरकारें तथाकथित विकास के एजंडे पर अड़ी थी उससे साफ था कि या तो वे सर्वशक्तिमान आधुनिक सभ्यता के एजेंटों के सामने लाचार थी या उनके हित आपस में मिलते थे। ऐसी स्थिति में जब राजनीतिक दल और उनकी सरकारें जनता की आंकांशाओँ के बजाय तथाकथिक विकास को तरजीह दे रही हों उनसे तिब्बत के इस शांतिपूर्ण आंदोलन के समर्थन की उमीद नहीं की जासकती। लेकिन अपने शोषण व दमन के विरुद्ध आवाज उठा रहे लोग तो एकजुट होकर इस विनाशलीला के प्रतिकार का कोई प्रभावशाली रास्ता निकाल सकते हैं।
यह लेख 5 मई 2014 से पहले लिखा गया। इस दौरान तिब्बत के लिए अंतर्राष्ट्रीय कैम्पेन ने 2009 से 2014 तक हुए आत्मदाहों का जो नक्शा छापा वह नीचे दिया जारहा है।

Map: Tibetan self-immolations from 2009-2014
Click map for larger image
Tibetan self-immolations
सूत्र-- http://www.savetibet.org/resources/fact-sheets/self-immolations-by-tibetans/map-tibetan-self-immolations-from-2009-2013/

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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

यह स्वच्छता अभियान कहीं इकनोमिक हिट मैन का कमाल तो नहीं!!!


यह स्वच्छता अभियान कहीं इकनोमिक हिट मैन का कमाल तो नहीं!!!

गोपा जोशी


          जी हां, इकनोमिक हिट मैन(ईएचएम) क्या होता है यह जान पर्किंसं  की पुस्तक   कंफेशंस आप एन इकनोमिक हिट मैन पढ़ने से पहले मुझे भी मालूम नहीं था। जब किताब पढ़ी तो रोगटे खड़े होगए। ईएचएम का काम कितना खतरनाक है वह इस किताब के छपने में आई कठिनाई से साफ होजाता है।सर्व प्रथम 1982 में इस पुस्तक को छापने की असफल कोशिश की गई। तब इसके शीर्षक की शुरुआत कंसिएंस(conscience अंतरात्मा) से की गई था।इसके बाद अगले बीस सालों में चार बार यह कोशिश दुहराई गई। हर बार साम, दाम,दंड, भेद, के हथकंडे अपना कर इस पुस्तक का प्रकाशन रुकवा दिया गया। अंत जैसे हमारे यहां बाबरी मस्जिद के विध्वंस के विरोध में कई किताबें लिखी गई उसी प्रकार जान ने 2001 में, सितंबर 11की घटना से त्रस्त होकर यह किताब को छपवाने की ठान ली। इसमें लेखक की बेटी ने हौंसला  बढ़ाया और कहा अपने आने वाली पीड़ियों के लिए इस पुस्तक को छापना अत्यंत आवश्यक था। यदि इस वजह से लेखक की हत्या भी होजाती हो तो वह स्वयं उस अधूरे काम को पूरा करेगी। इस घटना के लिए जान पर्किंस, अमेरिका को जिंमेदार मानता है। अमेरिकी सरकार , बहुराष्ट्रीय सहायता संगठन तथा कारपोरेशंस की मिलीभगत से ही विश्व में ऐसी स्थति पैदा हुई कि सितंबर 11 जैसी घटना हुई। इएचएम के अपने लंबे कार्यकाल में जान  ने पूरे विश्व का भ्रमण किया तथा आधुनिक इतिहास की कई ड्रामैटिक घटनाओं --जैसे पनामा के राष्ट्रपति की हत्या, पनामा पर आक्रमण,इरान के शाह का पतन, सउदी अरब का कायाकल्प,इत्यादि इत्यादि में या तो भागीदारी निभाई या दर्शक रहे।  अपने मूल संवैधानिक लक्ष्यों के विपरीत अमेरिका ने वैश्विक साम्राराज्य बनाने की जो साजिश रची है उसको जान समस्त संसार के लिए खतरनाक मानता है अतः इस पुस्तक के माध्यम से उसने इस साजिश का पर्दाफांश करने की कोशिश की। छपवाने के लिए  2003 में एक शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट प्रकाशन घराने के अध्यक्ष ने इसके प्रारूप को पढ़ा। पुस्तक की सामग्री पसंद करने के बावजूद इसको छापने में असमर्थता व्यक्त की। कारण इसमें जिनकी पोल खोली गई थी उनसे व्यक्तिगत संबंध थे।इसको उपन्यास की शक्ल में छापने की सलाह दी। बाद में एक छोटे प्रकाशन ने इसको छापने का साहस किया।
इएचएम की भूमिका में जान गरीब देशों के राजनीतिज्ञोंको को आधरभूत संरचना के विकास के लिए जरूरत से कई गुना अधिक कर्जा लेने के लिए प्रेरित करता था। एक बार ये देश विदेशी कर्ज के जाल में फस जाते हैं तो अमेरिकी सरकार और इसकी सहयोगी अंतर्राष्ट्रीय सहायता एजंसियां तरह तरह की शर्तें लगाकर उनका तेल अंय संसाधनों का उपयोग अपने वैश्विक साम्राराज्य बनाने में करते हैं। यह काम अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय साजिश तथा भ्रष्टाचार के माध्यम से करता है।
लेखक बताता है कि ये ईएचएम मोटा वेतन पाने वाले विशेषज्ञ होते हैं जो हर साल विश्व भर के देशों को लाखों करोड़ डालर का चूना लगाते हैं। वे विश्व बैंक, अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी (यू. एस. एड.), और अन्य विदेशी सहायता संस्थाओं के सहयोग से पूंजी का प्रवाह विशाल निगमों, तथा कुछ ऐसे रईस परिवारों जिनका विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण है की तिजोरियों की ओर करते हैं। यह काम झूठी वित्तीय रपटें बनाकर,फर्जी मतदान करा कर, घूसखोरी, जुआ, शराब शबाब की संस्कृति विकसित कर, जबरन उगाही,तथा हत्या आदि करवा कर किये जाते रहे हैं। लेखक का कहना है कि इक्वाडोर के राष्ट्रपति जाइमे रोलडौस(Jaime Roldos), तथा पनामा के राष्ट्रपति ओमर तोर्रिजोस(Omar Torrijos), की मौतें दुर्घटनाएं नहीं थी। उनकी हत्या कारपोरेट जगत, सरकार बैंको के गठजोड़ का विरोध करने की वजह से हुई थी। ईएचएम इनको रास्ते पर लाने में सफल नहीं हुए तो सीआइए के गीदड़ों जो ईएचएम के पीछे हमेशा तैयार खड़े रहते हैं ने अपना खेल कर दिया।
लेखक को क्लौडाइन (Claudine) नामक महिला शिक्षक ने ईएचएम के खांचे में ढ़ाला। तभी उसने साफ कर दिया था कि एक बार ईएचएम बनने का मतलब सारी जिंदगी ईएचएम बने रहना। ईएचएम का काम पूरे विश्व के राष्ट्रों के राजनीतिज्ञों को अमेरिका के व्यापारिक हितों के अनुरूप ढ़ालना था। अमेरिका अपनी राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इन राजनीतिज्ञों की सेवाएं लेता है बदले में ये नेता अपने देशों में अमेरिकी पूंजी से औद्योगिक पार्क, बिद्युत संयंत्र, हवाई अड्डे आदि बना कर राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करते हैं।इस प्रक्रिया में अमेरिका की इंजीनियरिंग, निर्माण जैसी कंपनियों की तिजोरियां भर जाती हैं।जान पर्किंग ने लिखा है कि इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप आज बड़े बड़े कारपोरेट तीसरी दुनियां के देशों के लोगों को अमानवीय असुरक्षित परिस्थितियों में नाम मात्र की मजदूरी में लंबे समय तक काम करने को मजबूर करते हैं। तेल कंपनियां वनों, नदियों को टोक्सीन से प्रदूषित कर रही हैं। जिससे सृष्टि के अस्तित्व को खतरा पैदा होगया है। दवा कंपनिया लोगों को जीवन रक्षक दवाओं से वंचित रख रही हैं।
          ईएचएम द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनी परिस्थितियों की उपज है। 1951 में इरान की जनता ने ब्रिटिश तेल कंपनी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था।इस विद्रोह को ठंडा करने के लिए इरान के तत्कालीन लोकप्रिय प्रधान मंत्री ने इरान की सारी पेट्रोल संपदा का राष्ट्रीयकरण कर दिया। ससे इग्लेंड के हितों को चोट पहुंची। इग्लेंड ने अमेरिका से मदद की गुहार की। अमेरिका ने सीआइए एजंट करमिट रूजवैल्ट (Kermit Roosevelt )को इरान भेजा। उसने साम दाम दंड भेद की नीति अपना कर वहां पर दंगे प्रायोजित ।करवाए इरान के प्रधान मंत्री के खिलाफ हिंसक आंदोलन आयोजित करवाए।इरान के लोकप्रिय प्रधान मंत्री को अपदस्त कराकर कैद में डाल दिया गया। अमेरिकी समर्थक तानाशाह शाह को गद्दी पर बैठाया गया। इस प्रकार इस नए धंधे की शुरुआत हुई।1960 के दशक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मद्रा कोष जैसे बहुराष्ट्रीय संगठनों का सशक्तीकरण हुआ। चूंकि विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मद्रा कोष में पूंजी अमेरिका तथा मित्र यूरोपीय देशों से आती थी इस सशक्तीकरण से इन  देशों की सरकारों, कारपोरेट जगत और विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे बहुराष्ट्रीय संगठनों के बीच आपसी निर्भरता बढ़ी। लेखक के इएचएम बनने तक इएचएम व्यवस्था का प्रशासनिक ढ़ाचा तथा ताना बाना पूरी तरह परिष्कृत होगया था। अब अमेरिकी गुप्तचर संस्थाओं जिनमें नासा भी शामिल था केवल इएचएम की जिंमेदारी निभाने के काबिल उमीदवारों का चयन करते थे।इनकी सेवाएं बहुराष्ट्रीय कंपनियां लेती थी और वही इनके वेतन का भुगतान करती थी। इससे यदि इनकी काली करतूतों की पोल खुल भी जाती तो सरकार पर आंच नहीं आती थी। हालांकि कारपोरेशन सरकार के पैसे से ही इनके वेतन आदि का भुगतान करती थी परंतु यह वित्तीय लेनदेन काग्रेस के नियंत्रण क्षेत्र से बाहर होता है। इसके अलावा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ट्रेड मार्क, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, तथा सूचना की स्वतंत्रता जैसे कानूनों का संरक्षण भी मिलने लगा।
स्वच्छता अभियान की मशाल किस प्रकार विदेशी पूंजी से जल सकती है और कैसे इसके आलोक में सब कुछ देशीय स्वाहा हो जाता है यह भी लेखक ने अपने प्रयोग के माध्यम से बताया है। यह प्रयोग लेखक ने सर्व प्रथम सउदी अरब में किया। इसका विस्तित वर्णन पुस्तक के 15वे अध्याय में किया गया है। मोदी के इस स्वच्छता अभियान पर शक इसलिए भी होता है कि मोदी, मोदी की पार्टी तथा पैतृक संस्था कभी गांधी के समर्थक नहीं  रहे। मोदी के गुजरात माडल में स्वच्छता कभी महत्वपूर्ण नहीं रही।इसका बीभत्स नजारा चीनी राष्ट्रपति की गुजरात यात्रा के दौरान तब दिखा जब राष्ट्रपति के रास्ते में पड़ने वाली झुग्गियों को ढ़क दिया गया।(ढ़कने के बजाय उनकी साफ सफाई की जा सकती थी रख रखाव सुधारा जा सकता था। पर गरीब झुग्गीवासियों की ऐसी किस्मत कहां)!!!
इस पुस्तक के 15वे अध्याय में सउदी अरब के धन शोधन के मामलों का वर्णन करते हुए जान पर्किंग लिखता है कि  6 अक्तूबर 1973 के मिस्र और सीरिया के इजराइल पर आक्र्मण से तेल संकट (oil crisis ) की शुरुआत हुई। मिस्र के राष्ट्रपति सादात ने सउदी अरब के शासक पर दबाव डाला कि वह तेल को हथियार बनाकर अमेरिका पर इजराइल का साथ नहीं देने का दबाव बनाए। 16 अक्तूबर को खाड़ी के सात देशों   ने तेल के दामों में 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी। 17 अक्तूबर को सीमित तेल प्रतिबंध का ऐलान हुआ। यह  तेल प्रतिबंध 18 मार्च 1974 तक चला। परंतु इसने अमेरिका को हिला दिया। इस आघात ने कारपोरेट जगत, अंतरराष्ट्रीय बैंकों, और सरकार को और करीब ला दिया। नीति निर्धारण के स्तर पर भविष्य में इस प्रकार को आघातों की संभावना को ही समाप्त करने के लिए रणनीति की आवश्यकता पर बल दिया गया।पैट्रोडालर की आमदनी से सउदी अरब में उपभोक्ता संस्कृति पनपी। वहां के लोग पश्चिमी देशों के रहन सहन को अपनाने लगे। इस प्रकार सामाजिक रूप से भी सउदी अरब अमेरिकी खांचे में ढ़लने को तैयार हो गया।इस घटना के बाद विश्व राजनीति में सउदी अरब की स्थिति अधिक महत्वपूर्ण होगई। तेल प्रतिबंध लगाकर कमाए गए सउदी अरब के पैट्रोडालरों को अमेरिका वापस लाने के रास्ते खोजे जाने लगे। साथ ही सउदी अरब सरकार को बदले परिवेश के अनुरूप अपने लिये संस्थांए और प्रशासनिक ढ़ाचा खड़ा करने में मदद करने पर जोर दिया जाने लगा। अतःतेल प्रतिबंध समाप्त होते ही अमेरिका ने अपनी कूटनीतिक गतिविधियां तेज कर दी। एक संयुक्त अमेरिका सउदी अरब आर्थिक सहयोग आयोग का गठन हुआ। इसको JECOR के नाम से जाना जाता है। JECOR समझौता बहुत महत्वपूर्ण था। इससे अमेरिका की सउदी अरब में पैठ बहुत गहरी होगई तथा आपसी निर्भरता इस तरह बढ़ गई कि सउदी अरब का अमेरिका के चुंगल से निकलना संभव नहीं रह गया।
पारंपरिक सहायता कार्यक्रमों के विपरीत इस आयोग की जिमेंदारी सउदी अरब के पेट्रोडालरों के बदले में अमेरिकी कंपनियों की सोवाएं सउदी अरब के आधुनिकीकरण के लिये मुहैया कराने की थी। अमेरिकी ट्रेजरी विभाग को इस आयोग के वित्तीय प्रबंधन की सारी जिंमेदारी सोंप दी गई। चूंकि सउदी अरब के पेट्रोडालर खर्च हो रहे थे अमेरिका के नहीं इसलिए इस आयोग की गतिविधियां कांग्रेस के दायरे से बाहर थी। इस परियोजना पर अमल करने के लिए अमेरिकी ट्रेजरी विभाग ने सलाहकारों टीम की एक टीम बनाई उसका एक सदस्य जान पर्किंसं  भी था। इस टीम के सदस्यों के काम में अत्यधिक गोपनीयता बरती गई।एक सदस्य को दूसरे के कामों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। जान पर्किंसं की जिमेंदारी थी कि अमेरिकी इंजीनियरिंग निर्माण कंपनियों के लिए सउदी अरब में ज्यादा से ज्यादा काम के अवसर पैदा करे। जान पर्किंसं को बताया गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा तथा धन अर्जन की दृष्टि से यह मिशन बहुत महत्वपूर्ण था। लेखक का मुख्य काम ऐसे प्रोजक्ट बनाना था जिनकी सहायता से सउदी अरब की अर्थव्यवस्था का ताना बाना अमेरिकी अर्थव्यवस्था से इस प्रकार गुथ जाय कि भविष्य में अमेरिका की नीतियों का समर्थन करना उसकी मजबूरी होजाय।
1974 में सउदी अरब के एक कूटनितिज्ञ ने अपने देश की राजधानी रियाध की कुछ फोटो जान पर्किसं को दिखाई। इनमें से एक फोटो में सरकारी दफ्तरों के बाहर कूड़े के ढ़ेरों को खाकर साफ करती हुई बकरियों के  झुंड का था। कूटनितिज्ञ ने जान पर्किंसं को बताया कि आम सउदी अरब का वासी कबाड़ का निपटान करना अपने आत्मसंमान के विरुद्ध मानता था। अतः बकरियां ही खाकर कूड़े को ठिकाने लगाती थी। बस जान पर्किंसं को सउदी अरब में पूंजी निवेश करने का रास्ता मिल गया। लेखक ने कूड़ा निपटान के लिए बकरियों के स्थान पर आधुनिकतम कूड़ा संग्रह और निपटान प्रणाली का निर्माण, बड़े पेट्रोकेमिकल परिसरों की स्थापना और उनके आसपास विशाल औद्योगिक पार्कों का विकास के प्रस्ताव दिया साथ में इनके बन जाने से नए हवाई अड्डों, बंदरगाहों के निर्माण की आवश्यकता, हजारों मेगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता वाले उपक्रमों,तथा बिजली संचरण और वितरण लाइनों, राजमार्गों, पाइपलाइनों, संचार नेटवर्क, और परिवहन प्रणालियों की बढ़ती मांग की फेहरिस्त तैयार की। इसके अलावा सेवा उद्योगों को लगाने के साथ साथ इस व्यवस्था को चलाए रखने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे के निर्माण का खाका भी तैयार किया गया।
इस प्रकार सफाई तंत्र के विकास से प्रारंभ हुआ यह प्रस्ताव एक मॉडल  प्रस्ताव बन गया। चूंकि सउदी लोग शारीरिक श्रम को हीन समझते हैं इसलिए आधुनिकीकरण की इन सभी परियोजनाओं के निर्माण के लिए मानव संसाधन बाहर से आना था। इस आयातित संसाधन के रहने के लिए विशाल आवासीय परिसरों, शॉपिंग मॉल, हस्पतालों, पानी, मलजल उपचार संयंत्र अग्निशमन,पुलिस विभाग , बिजली, संचार, और परिवहन नेटवर्क का निर्माण से पैट्रोडालर कमाने की संभावनाएं और भी अपार होगई। इस प्रकार इएचएम की भूमिका में नए आयाम जुड़ गए। अब सउदी अरब को कर्ज के बोझ तले इस प्रकार दबाना नही था, ताकि वह उऋण हो सके। वरन उसके सामने विकास का ऐसा ढ़ाचा खीचना था कि वह उसमें डूबता चला जाय। इसके बदले में अमेरिका ने पेट्रोडालर भी हथिया लिए। साथ ही भविष्य में तेल पर प्रतिबंध नहीं लगाने का आश्वासन भी सउदी अरब से ले लिया। इस प्रकार इएचएम की भूमिका में नए आयाम जुड़ गए।
एक बार प्रस्ताव बनाने शुरु किये तो बनते चले गए। बकरियों के स्थान पर आधुनिक संयंत्र लगाने की योजना के साथ साथ निर्यात के लिए कच्चे तेल से तैयार माल बनाने के संयंत्र, बड़े बड़े औद्योगिक पार्क,बिजली उत्पादन सड़क निर्माण,संचार माध्यमों का विकास, गैस पाइप लाइन डालना, आदि आदि।इस माडल के अंय देशों में भी अपनाए जाने की संभावनाएँ भी अपार थी।पैट्रो डालर के अभाव में गरीब देश विश्व बैंक से कर्जा ले सकते थे। इन परियोजनाओं का बजट हमेशा अनुमानित होता था। मुख्य उद्देश्य अमेरिकी कंपनियों को अधिकतम् लाभ पहुंचाना तथा सउदी अरब की अमेरिका पर निर्भरता बढ़ाना था। ये दोनों उद्देश्य बड़ी सहजता से साथ साथ प्राप्त किये जा सकते थे। कारण यहां लगाई जाने वाली परियोजनाओं की तकनीक इतनी परिष्कृत थी कि इनको समय समय पर और परिष्कृत करने तथा सर्विसिंग की आवश्यकता पड़नी थी। अतः सउदी अरब लंबे समय के लिए अमेरिकी कंपनियों पर अपनी परियोजनाओं के रख रखाव के लिए निर्भर हो गया। अगले कई दशकों तक अमेरिका की झोली पैट्रो डालर से भरनी थी। आधुनिकीकरण के इस प्रोग्राम से देश के भीतर का पारंपरिक संतुलन तथा इस क्षेत्र के देशों के बीच का संतुलन गड़बड़ा गया। देश के भीतर पश्चिमीकरण की इस बयार का विरोध करने वालों को दबाने के लिए तथा विदेशी आक्रमण के खतरे से इन संयत्रों को बचाने के लिए अमेरिकी हथियारों की आवश्यकता, और इन आधुनिक हथियारों के समय समय पर परिष्करण तथा रख रखाव के लिए लंबे समय तक इन कंपनियों पर निर्भरता  पड़नी थी। हथियारों के रख रखाव के लिए भवनों आदि का निर्माण, सुरक्षाकर्मियों के लिए भवन अंय सुविधाओं का निर्माण के साथ साथ सुरक्षा के लिए हवाई अड्डे आदि के निर्माण कार्यों में अमेरिकी कंपनियों की चांदी होनी थी। इस प्रकार सउदी अरब एक ऐसी गाय होगया जिसको अपने रिटायर होने तक ये इएचएम दुह सकते थे। चूंकि सभी इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए उतावले थे, अतः इस तथाकथित शोध और विकास कार्य के लिए राशि कई कंपनियां दे रही थी।
          अमेरिका ने सउदी अरब के तेल के दाम बढ़ाने की स्वतंत्रता पर भी लगाम लगा दी साथ ही यदि अंय तेल उत्पादक देश अमेरिका और यूरोप के देशों को तेल बेचने पर प्रतिबंध लगाते हैं तो सउदी अरब अपने तेल भंडारों से अधिक तेल निकाल कर इसकी भरपाई करेगा यह आश्वासन भी ले लिया था। इसके बदले में अमेरिका ने यहां के राजघराने को किसी भी खतरे के विरुद्ध राजनीतिक तथा सैन्य सुरक्षा का भरोसा दिया। इस प्रकार यह घराना अमेरिका की मदद से लंबे समय तक राज कर सकेगा।  अब इस राजघराने को पड़ोसी देशइरान,इराक, सीरिया, इजराइल से सुरक्षा का आश्वासन मिल गया। इसके अलावा सउदी अरब को पेट्रोडालर से अमेरिकी सरकार की प्रतिभूतियां को खरीदना था।इन प्रतिभूतियों से अर्जित ब्याज से अमेरिका को सउदी अरब का आधुनिकीकरण करना था। यह अपने आप में एक अभूतपूर्व साजिश थी। सउदी अरब के पैट्रोडालरों का उपयोग कर इएचएम को इस देश (सउदी अरब) को अमेरिकी व्यापारिक घरानों के हितों के अनुरूप ढ़ालना था। अमेरिका में इन व्यापारिक घरानों की ये गतिविधियां काग्रेस के निरिक्षण क्षेत्र से बाहर थी। इस प्रकार बड़ी चालाकी से सउदी पूंजी अमेरिकी अर्थव्यवस्था में झोंक दी गई।
लेकिन सउदी राज घराने के राजकुमार को इस पूरे सौदे में साजिश नजर आई। इसको पटाने के लिए जान पर्किंसं ने सुंदरी के लिए इसकी कमजोरी खोज निकाली। इसकी मांग के अनुरूप इसके लिए अमेरिका यात्रा के दौरान साथ रहने, बाद में सउदी अरब में इसकी रखैल बनने को तैयार सुंदरियों की मदद से इस समझौंते को अंजाम दिया गया।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के समय यह पुस्तक इसलिए प्रासंगिक होगई है कि एक तो यह यात्रा बहुत सुनियोजित थी। अमेरिका जाने से पहले अच्छे दिन लाने का, महंगाई कम करने आदि वादों के विपरीत नया नारा स्वच्छ भारत प्रचारित किया गया। सारा सरकारी तंत्र इसमें झोंक दिया गया। स्वंय मोदी ने 2 अक्तूबर को इस देशव्यापी अभियान का शुभारंभ करने का एलान किया।अमेरिका ने भी इस स्वच्छता अभियान को हाथों हाथ लिया। ऐसा लगा कि ओबामा सरकार मोदी के सपनों का भारत बनाने के लिए तत्पर बैठी है। ओबामा ने झट से इस सफाई अभियान में सहयोग करने का वादा कर दिया।साथ ही तीन शहरों को स्मार्ट शहर बनाने का बचन भी दे दिया।इससे पहले जापान के क्योटो शहर ने वारानसी के आधुनिकीकरण का वादा किया।मीडिया के एक बड़े हिस्से. राजनीतिक दलों विशेषज्ञों ने इन वादों का खुले दिल से स्वागत किया। क्या हम उंमीद करें कि इन वादों के पीछे कोई हिट मैन नहीं है। 
अमेरिका और मोदी की आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त मुहिम चलाने पर सहमति को भी बहुत प्रचारित किया जारहा है। लेकिन आतंकवाद का जनक कौन है। 2004, 2005, में पंग्विन अमेरिका ने स्टीव कौल की  घोस्ट वार शीर्षक से करीब 800 पेज की पुस्तक छापी। स्टीव कौल ने 1989-92 बीच में वाशिंगटन पोस्ट के साउथ एशिया ब्यूरो के मुखिया के तौर पर अफगानिस्तान मामलों पर रिपोर्टिंग की। 1998 से वाशिंगटन पोस्ट के प्रबंधक संपादक रहे। 1990 के एक्सप्लेनेटरी जर्नेंलिज्म में पुटलिजर अवार्ड विजेता रहे हैं। सितंबर 11, 2001 की घटना के बाद स्टीव कौल ने भी घोस्ट वार पुस्तक में इस घटना के कारणों की पड़ताल की और आतंकवाद बढ़ाने खास कर हमारे पड़ोसी देश में इसकी गहरी पैठ बनाने में अमेरिका तथा सीआइए की भूमिका को विस्तार में उजागर किया। इएचएम जान पर्किंस ने लिखा है कि अमेरिका ने सउदी राज परिवार को ओसामा बिन लादेन को सोवियत यूनियन के विरुद्ध जिहाद चलाने के लिए खजाना खोलने के लिए प्रेरित किया। अमेरिका तथा रियाध ने संयुक्त रूप से इस मुहिम के लिए 3.5 बिलियन डालर झौंके। सउदी अरब के धन से 20 देशों में जिहादी गुटों को प्रशिक्षित किया जारहा था। लेखक कहता है कि सउदी राजपरिवार तथा भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बुश परिवार के बीच 1974 से ही राजनीतिक, आर्थिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर मधुर संबंध रहे हैं। सितंबर 11 की घटना के बाद धनी सउदी परिवारों जिनमें ओसामा बिन लादेन का परिवार भी था को गुप्तरूप से निजी जैट विमानों से अमेरिका से भागने में किसने मदद की यह आज तक मालूम नहीं है। कोई सरकारी अफसर यह बताने तैयार नहीं  थी कि किस ने यात्रियों के औपचारिक जांच की। जान का मानना है कि यह इन दो परिवारों(बुश और सउदी राजघराने) के मधुर संबंधों की बदौलत संभव हुआ। विक्की लीक तथा स्नोडन के खुलासों से साफ होजाता है कि अमेरिका ने 2001 की घटना से कोई सबक नही लिया है। ऐसे में भारत किस आधार पर विश्वास कर सकता है कि अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध मुहिम चलाने का वादा निभाने में इमानदारी बरतेगा।